Thursday, November 25, 2010

सभ्यता ,असभ्यता की ऋणी।

कमरे के भीतर चलता पत्रकारिता का पाठ । कई यूवक ,युवतियां सभी सभ्य घरों के। अपनी बात कहने को आतुर और मनवाने को भी। एक विचार का हुआ विशलेषण जो उठा उसी भीड़ से, " ये सभ्यता क्या नहीं असभ्यता की ऋणी।?" सब शांत। कैसे,किसलिये ?शोर बस एक खिड़की के बाहर से आता॰॰॰ठक-ठक,ठक-ठक"। हथोडी कि आवाज़। "यह यूवक पेड़ के नीचे बैठा,,बनाता है कुर्सियां दरवाज़े खिड़कियां॰॰॰बस शोर करता है। इसे क्या आता है॰॰॰न खाने पीने का ढंग , न पहनने ओढने का । न बोलने का न हंसने रोने का॰॰॰बस किये जाता है शोर कितना असभ्य। और हम बिना इन कुर्सियों दरवाज़ों खिड़कियों के क्या ये पाठ पढने यहां आते!!? नहीं ! फिर भी हम र्क्षेष्ठ और वो नीच? कैसे? है पल पल सभ्यता ,असभ्यता की ऋणी। मानो या न मानो।"