Tuesday, May 17, 2011

पीड़ पराई ....

पीड़ पराई कैसे जानू......

आज सुबह से ही मन शुब्ध है !
आज मेरी काम वाली रोते रोते मेरे पास आई! यूँ तो रोज़ सुनती हूँ किस्से उसकी दरिद्रता के! वरन ,आज तो उसके नेत्र ही विस्मय जल बरसा रहे थे !
"क्या हुआ क्यूँ रोती हो,इश्वर को यूँ कोसती हो!"
"अरे भाभी मैं नहीं कहती तो क्या,ह्रदय मेरा दुःख से है भरा हुआ!मकान मालिक ने घर से निकाल दिया,बच्चा बचपन से बीमार रहा...पति की कमाई का भरोसा नहीं
फिर भी कभी खुदा को कोसा नहीं!स्कूल में बच्चे का हो दाखिला कैसे जब नहीं मेरे पास थोड़े भी पैसे !"
बस यूँही एक घंटा निकल गया,हृदय मोम था मेरा पिघल गया!
उसके बच्चे की फीस थमाई,जाओ कराओ उसे पढाई!मन मेरा प्रसन्न था मैंने जानी पीड़ पराई....!फिर शाम को जब माँ आई और मैंने उनको ये बात बताई .... वो गर्व से भर आई!
मेरी बेटी है ,मुझे गर्व है, पीड़ित की सेवा ही धर्मं है...
कल मैंने उसके बच्चे की थी चिकित्सा कराई, आज तुम भी उसके कितने काम आई!हम दोनों ने जानी पीड़ पराई!
हमने सोचा क्यूँ न उसके घर हो आएं! बच्चे से कभी मिले नहीं, ज़रा उसको भी मिल आएं !इधर उधर से पूछ पाछ कर उसकी बस्ती में थे पहुंचे ! उसके घर पर ताला देख सोचा ज़रा किसी से पूछें !
"अच्छा वो,हाँ वो यहीं रहती है,काम कई घरों मैं करती है, और रात मैं ही लौटती है! "
तो बच्चे को कहाँ छोडती है?
"बच्चा ? पर उसका तो कोई बच्चा नहीं! बस पति रहता है यंही ! वो भी मगर देर रात ही लौटता है, और तो कोई भी यहाँ नहीं रहता है!"
हम माँ बेटी उलटे पाँव लौटे....
मन पर भारी बोझ रहा था एक दूजे से भी क्या कहते...!
रस्ते भर न जाने कितने मांगने वालों ने हाथ फैलाए
और मैंने सबको कितने गुस्से से था दिया भगाए
तभी एक नन्हा सा हाथ मुझ तक जाने कैसे पहुंचा....
"माई थोड़े पैसे दे दो मैं भी तो कुछ खा लूँगा !"
पैसे तो उसको दिए नहीं पर उसको एक दूकान पर ले आई,
लो लेलो तुमको जो लेना है चाकलेट बिस्कुट या मिठाई....
हम माँ बेटी अब फिर प्रसन्न थे....
हम अब भी जानेंगे पीड़ पराई ......!!!!

Thursday, May 12, 2011

साधारण लड़की की साधारण कहानी.......उसी की ज़ुबानी .

कितने दिन बाद आज कुछ लिखने का मानस बना पाई हूँ!
क्या लिखूं ये भी आज मैं सोच कर आई हूँ!

"अरे बेटा...जा ज़रा कपड़े तो सुखा आ!
और कुछ कर नहीं रही है तो चाए भी बना ला!

क्या लिखना कुछ नहीं करना है,
पर माँ की आज्ञा का पालन भी करना है!

"हां माँ ,जाती हूँ!"

हो गया काम....अब कुछ अच्छा लिखूँगी!
अपने स्वप्न सुरीले बुनूँगी !
कोई प्यारी बात
आधी रात,
उँचे पहाड़ पर बने मंदिर में बजती
घंटियों का नाद...!
अब लिखूँगी!

"अरे! फिर आकर बैठ गई,
क्या सोचने लग गई?
मैं तेरी माँ हूँ तू मुझको तो बता,
अब तू बेटी है बड़ी हो गई!
काम काज सीख ले,खुद को थोड़ा संवार ले,
ससुराल तुझको जाना है,
कैसा होगा, किसने जाना है!
कविता लिख कर क्या बन जाएगी,
फिर चूल्हा चोका ही सम्भालना है!"

"क्यूँ माँ ,आपकी सहेलियाँ आईं थी?"
"हाँ! मगर तुझे कैसे पता ,?
तू तो अभी कालेज से आई थी?"

"अरे माँ वो कितनी अच्छी हैं! अपना पड़ोसी धर्म निभाती हैं,
मेरी तो वो देखो"हाय" कितनी चिंता जताती हैं!
थोड़ा तुम भी हो आया करो,
उनकी भी खबर लाया करो!"

"हाए! देखो इसे,कितनी ज़बान लड़ाती है,
मुझको पाठ पढ़ाती है...!"

लो माँ तो गुस्सा गई,
और मेरी शामत आ गई!

"अरी भाग्यवान,क्यूँ मेरी बेटी पर चिल्लाती रहती हो!
जाओ चाए ले आओ,तुम कितनी अच्छी बनाती हो!"

"आपने ही सर पे चढ़ाया है इसे,
कविता की राह पे चलाया है इसे!
घोड़ी जैसी हो गई है फिर भी देखो
अब तक कोई लड़का देखने आया है इसे?"

वा माँ ये क्या दिन दिखा दिया मुझे,
अच्छी ख़ासी बेटी हूँ,जानवर बना दिया मुझे!?

अब पिताजी बचा सकते हैं,
ये ही तो हैं जो मुझे समझते हैं!


"बेटा! कालेज अच्छा चल रहा है ना,
और लिखना भी और पढ़ना...?
कल मैने तुम्हारी कविता पढ़ी,
तुमने अच्छी बात कही,
उम्र के इस मोड़ पर थोड़ा संभलना.
कोई ऐसी बात हो तो मुझसे अवश्य कहना!"

इस बार लगा है धक्का गहरा,
अनुभव तो पहले ही कम हैं
अब अनुभूतियों पर है पहरा!

इन सब में भाई कैसे चुप रहता,
आगे आकर वो भी कहता,

"अरे माँ ये तो आजकल का फैशन है,
इसमें क्या टेंशन है
जहाँ देखो हर लड़की शेरो शायरी में मशगूल है,
इसे डांटना फ़िज़ूल है...."

ये सुनने से पहले मैं बहरी क्यूँ ना हो गई,
ये धरती क्यूँ ना फट गई,
और मैं.....नहीं...मैं नहीं
मेरे पन्ने और कलम क्यूँ ना इसमें समा गए....
जो मैं समा गई तो मानो मेरे स्वप्न भी तो समा गए....!!!!

Tuesday, May 3, 2011

एक किस्सा

बात उन दिनों की है जब मैं स्नातक की पढ़ाई के लिए अपने जन्म स्थान पहुँच गई थी!छोटा शहर और बहुत से रिश्तेदार! वह वक़्त बहुत ही रोमांचपूर्ण रहा है मेरे जीवन में!
उन्ही दिनों एक ख्याति प्राप्त लेखक ,जो मेरे पिताजी के मित्र भी है, वहीं रहते थे! बस फिर क्या था,जितना मैने उनकी दिनचर्या का अनुसरण किया उतना तो मैने अपने स्नातक के विषयों का भी ना किया होगा! घंटो उनके घर पर धावा बोले रहती थी और ना जाने कैसे कैसे उट पटांग प्रश्नों की झड़ी लगाए रखती थी! ये अलग बात है की उन्होने कभी अपने मुख पर क्रोध या असुविधा का भाव नहीं आने दिया और उसके लिए मैं उनकी आज तक आभारी हूँ!
ऐसे ही एक दिन जब मैं उनके घर अपने प्रश्नो की पोटली ले पहुँची थी तो उनके एक प्रश्‍न ने मुझे विचलित कर दिया था! वे यकायक ही पूछ बैठे थे,
"क्या तुम्हारे घर पर महाभारत है?"
हें!!
मैं विस्मयता से सोचने लगी थी की इन्हे कैसे पता मेरे घर मैं महाभारत है? किसने बताया होगा?वैसे सही है ऐसी बातें कोई कितनी दबा सकता है!मुझे पता नहीं चला था की मेरी स्वास तीव्र गति से चलने लगी थी! क्या उत्तर दूं इसी उधेड़बुन में थोड़ा हंस कर हाँ में सर हिला दिया! और मन ही मन उस संदेशवाहक को कोस रही थी जिसने मेरे घर के महाभारत की बात पूरे शहर में फेला दी थी!मैं नज़रें झुका कर विचार मग्न ही थी वे फिर बोल पड़े,
"तो उसे पढ़ा करो!"...
क्या
,"हाँ! उसमें यह लिखा है की एक कवि को क्या क्या नहीं करना चाहिए!"
ओह!!
अब क्या कह सकती थी! अब कैसे बोलती की मेरे घर में वो ग्रंथ तो है ही नहीं....अपने आप पर हंसते हुए चुप सी बैठी रही!