Monday, April 16, 2012

परिवर्तन

" अपना नित्य कर्म निपटा कर गुरु श्री योगी अपने कक्ष में अपने आसन पर विराजमान हो गए! साधना का समय हो रहा था ! गुरु माँ को समझ ही नहीं आया वे अब क्या करें ! सो वह भीं नीचे आसन लगा वहीँ बैठ गईं और उस कक्ष के एक कोने में स्थापित गोपाल की मूर्ति को निहारने लगी !
"हे श्याम ! तुम्हारा खेला किस को ज्ञात हो सकता है ! इस राजकुमारी को तुम ने कहाँ ला खड़ा किया ! तुम ने कैसे नियति का शिल्प उकेरा है! नहीं ! आक्रोश नहीं मेरे भीतर ,पर प्रभु विडंबना है ! "
गुरु माता की उपस्थिति श्री योगी की साधना में बाधक बन रही थी ! वे भी श्याम को ताकने लगे !
" ये किस विवाशातामें मुझे डाल दिया तुमने प्रभु ! कैसे अब मैं तुम्हारी निर्विघ्न भक्ति करूँ ! ? "
कुछ विचार कर श्री योगी ने गुरु माता को आदेश दे दिया ! " जाओ देवी ! मेरे कक्ष की गागर अतृप्त है ! थोडा जल भर लाओ नदी तट से ! " गुरु माता श्री योगी को ताकने लगीं! प्रातः से ही वह अपने कार्य में जुट गईं थीं ! महल में उन्होंने अपितु कोई कार्य अपने हाथों से नहीं किया था ! वह अब भी नहीं करना चाहती थीं ! परन्तु श्री योगी को किसी कार्य के लिए न कह पाना उन के संस्कारों में मान्य नहीं था ! वे बिना कुछ प्रश्न किये उठ खड़ी हुईं ! गागर उठाई ! श्याम को एक बार पुनः निहारा और कक्ष से बाहर आ गईं !
आश्रम से नदी तट तक का मार्ग घने भायावह वन से घिरा हुआ था ! गुरु माँ अपनी स्मृतियों में खोई आगे बढ़ रहीं थीं ! उन्हें उस वन में गूँज रही चिड़ियों का गान व जंगली पशुओं की चिंघाड़ भी सुनाई न पड़ रही थी ! यकायक वह रुक गयीं ! कहीं से किसी के रुदन का उन्हें आभास हुआ ! थोडा आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा एक नवजात शिशु , नितांत अकेला , एक तरुवर के नीचे छोटे सी टोकरी में हाथ पैर मार रहा था ! उसके आस पास कोई भी न था ! वह उसके पास पहुंची और उसे निहारने लगीं !
" ओह ! बहुत ही सुनदर शिशु है ! इसके माता पिता कहाँ गए ! अपने शिशु को ऐसी वीभत्स स्थान पर अकेला छोड़ कर ?! उन्होंने सोचा हो सकता है नदी से जल लेने गए हों ! "
वह बहुत देर तक वहीँ खड़ी रहीं उस शिशु की रक्षा हेतु उन्हें यही करना उचित लगा ! अधिक समय होने के पश्चात गुरु माता का मन व्याकुल हो उठा ! वह विचारने लगीं कहीं उस शिशु को कोई वहां जानबूझ कर तो नहीं छोड़ गया है ! खड़े खड़े गुरु माँ को संध्या होने को आई ! मन अधिक ही विचलित होने लगा !
" आश्रम पहुँचनाहै! क्या करूँ इस शिशु का ? कैसे इसे ऐसे ही इस भयावह वन में छोड़ जाऊं ! ? अपितु किसी को इसे लेने आना होता तो वह अब तक आ ही गया होता ! में इसे अपने साथ लिए चलती हूँ !" गुरु माँ ने उस नवजात शिशु को पुचकारते हुए अपने आँचल में छुपा लिया ओर आश्रम की ओर बढ़ने लगी ! भीतर भीतर प्रसन्न थीं ! कोमल से शिशु का आभास उनके देह को स्फूर्ति दे रहा था ! अपनी व्यथा भूल उस बालक की सरस रंग अलौकिक से प्रतीत हो रहे थे !

आश्रम में श्री योगी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ! उन्हें भय था कोई विपत्ति न आन पड़ी हो गुरु माँ पर ! एक राजा की बेटी है ! इतना तो श्री योगी का उत्तरदायित्व बनता था ! "कितना समय व्यर्थ कर दिया देवी ! आप तो जल लेने गईं थी
न ! गागर कहाँ है ! ? ओर यह आँचल में क्या बाँध लाईं हैं आप?
" गुरु माँ ने धीरे से अपना आँचल हटा से उस शिशु को श्री योगी के समक्ष उजागर किया ! श्री योगी को समझ ही न आ रहा था वह क्या कहें या क्या करें ! निशब्द ही कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध रह गए!" यह क्या देवी ,? किसका शिशु है यह ? आप इसे यहाँ क्यूँ ले आईं हैं? "" हे देव !यह नवजात शिशु वन में अकेला एक तरुवर की ओट रुदन कर रहा था ! मैंने बहुत समय तक किसी के आ जाने की प्रतीक्षा की परन्तु कोई भी नहीं आया !वहां भयावह वन में इसे कैसे छोड़ आती प्रभु, सो आश्रम ले आई ! ""परन्तु...! क्या पता किस का शिशु है ! ? हम इसे कैसे अपने आश्रम में स्थान दे सकते हैं ? "
"मेरा पुत्र ,मेरा पुत्र ! " अनायास ही किसी के चिल्लाने के स्वर सुनाई देने लगे ! " मेरा पुत्र कैसे चुरा लायीं तुम ! ?" क्रोध में तिलमिला रहे एक बहेलिया अपनी अर्धांगिनी के साथ गुरु माँ की ओर देख बोला ! गुरु माँ समझ ही न सकी यह क्या हो रहा है ! " आपका पुत्र ! ? परन्तु मैंने तो बहुत अधिक देर तक उस स्थान पर प्रतीक्षा की थी !
"शिशु को छीनते हुए बहेलिया श्री योगी की ओर मुख कर खड़ा हो गया !"गुरु देव , न्याय कीजिये ! यह तो मेरा पुत्र उठा लाइ ! हम ने न देखा होता तो हमें कभी ज्ञात नहीं होता की हमारा पुत्र कहाँ है ! न्याय कीजिये प्रभु न्याय कीजिये !""यह व्यक्ति क्या कह रहा है देवी ! आपने ऐसा क्यूँ किया !? " श्री योगी वैसे भी इस स्त्री को अपने आश्रम में रखने के समर्थक नहीं थे ! परन्तु राजा का दिया दान कैसे ठुकरा देते! वे तो कब ही से गुरु माँ के द्वारा किसी त्रुटी के हो जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे !
"आपने इस शिशु को क्यूँ उनके माता पिता से अलग कर दिया क्यूँ ?"गुरु माँ अचंभित हो श्री योगी को ताकने लगीं ! "मेरा विश्वास कीजिये प्रभु ! मैंने इसे चुराया नहीं है ! वन में इसे अकेला पा मुझे भय लगने लगा था कहीं इसे कुछ हो न जाए ! क्या मुझ से अधिक आपको इस बहेलिये पर विश्वास है ? "तभी बहेलिया चील्ला कर बोला ," अरे ! और कितना असत्य कहोगी तुम ! किंचित ही तुम हमारी निर्धनता का परिहास कर रही हो ! प्रभु न्याय कीजिये !"
"देवी ! इससे पहले की मेरा क्रोध बढ़ने लगे , आप यहाँ से प्रस्थान कर जाइए ! चाहे तो पिता के यहाँ या कहीं भी ! परन्तु अब यह आश्रम आपको शरण नहीं दे सकता ! ""पर प्रभु ! मैं तो आपकी अर्धांगिनी हूँ ! आप क्यूँकर मुझे अपने आश्रम से जाने को कह कर रहे हैं ! केवल इस कारण वश की मैं एक स्त्री हूँ ! ? ""आप व्यर्थ ही मुझ से प्रश्न कर रही हैं देवी ! यह मेरी आज्ञा है कि आप इसी समय यह आश्रम छोड़ कर चलीं जाएं ! "बहेलिये की ओर मुख कर बोले," मैं इस त्रुटी की क्षतिपूर्ति कैसे करूँ! ? इस आश्रम में जितना भी धन राजा ने दान किया है मैं आपके पुत्र को देता हूँ ! ऐसे दान का यही उपयोग उचित है ! "
गुरु माँ ने बहेलिये के मुख पर खेलती एक कुटिल हंसी को भांप लिया था ! परन्तु वह जानती थीं कि कोई भी उनकी बात को तुल्य नहीं देगा ! स्त्री है न वह...."
मुक्ता ने हडबडाहट में किताब बंद कर दी !
"क्या हुआ मुक्ता ?सुनाओ न ! फिर क्या हुआ ! गुरु माँ ने आश्रम छोड़ दिया बिना अपनी बात रखे !? किताब क्यूँ बंद कर दी तुमने ?"
मुक्ता कुछ ओर ही सोचने में मग्न थी ! "मेरा मन नहीं है अजीत ! बस अब तुम खुद ही पढ़ लो ! मैं तो उकता गई हूँ !"
"अरे तुम जानती हो ! तुम्हारी कहानियां तुम्हारे मुंह से सुनना अच्छा लगता है ! पढने का मेरा मन नहीं होता ! तुम्हे हुआ क्या है !"
मुक्ता उठ खड़ी हुई! " मुझे नहीं सुनानी यह कहानी ! मुझे नींद आ रही है अजीत ! तुम मुझे बार बार मत बोलो ! इतनी स्वतंत्रता तो मुझे मिलनी चाहिए !"इतना कह कर मुक्ता वहां से चली गई !
अजीत को कुछ कुछ स्पष्ट समझ में आ रहा था ! जो कहानी मुक्ता आज उसे सुना रही थी ...नारी का अपमान ओर भेदभाव की ऐसी कई कहानियाँ मुक्ता पहले भी लिख चुकी थी ! शायद वह खुद ही अनुभव और अनुभूति के बीच की शून्यता को समझने में असहाय थी ! मुस्कुराता हुआ अजीत बत्तियां बंद कर कमरे में पहुंचा !
मुक्ता निर्जीव सी औंधे मुंह पलंग के एक कोने में दुबकी हुई थी ! अजीत ने चुप रहना ही ठीक समझा ! ओर पलंग के एक ओर जाकर लेट गया ! कुछ देर केवल पंखे की झाएं झाएं ही सुनाई पड़ रही थी ! शब्दों का अकाल सा पड़ गया था ! तभी मुक्ता ने चुप्पी तोड़ी ओर औंधे लेटे लेटे ही बोली ," अजीत ! हम कल्पना की उड़ान तो भरते हैं पर यह स्वीकारते ही नहीं कि परिवर्तन आया है ! मुझे इस परिवर्तन पर अब कहानी लिखनी है !यथार्थवादी कहानी !" अजीत ने प्यार से हाँ में सर हिलाया ओर मुक्ता के बाल सहलाने लगा !
"मुक्ता , यथार्थवाद की परिभाषा जो तुम मानती हो वह क्या सभी के लिए एक से माइने रखती है ? समाज के जिस परीपेक्ष में हम रहते हैं वहां परिवर्तन आया है ! तुमने उसे महसूस किया है पर वह सभी जो आज भी सामाजिक कुरीतियों और अवसादों से घिरे हैं उनका उल्लेख करना भी तो साहित्य का धर्म है ! हाँ तुम्हे जो मन से सही प्रतीत होता हो उसी पर लिखो ! मैं तो केवल इस सन्दर्भ में चर्चा कर सकता हूँ ! "
" ठीक ही कह रहे हो अजीत ! मगर मुझे यह परिवर्तन सामजिक स्तर पर दिखाई देने लगा है ! और में इसी परिवर्तन का उत्सव मानना चाहती हूँ ! " यह कह कर मुक्ता ने आँखें मूंद लीं !
दोनों मन ही मन अपनी अपनी कहानियाँ बुनने में लीन हो गए !