Tuesday, March 2, 2021

नब्ज़

 सभी लोग गाड़ियों से उतरे तो आग बरसाता सूरज सबकी आँखों को चुंधिया गया। किसी ने गर्मी को उलाहना दिया किसी ने इस यात्रा का कार्यक्रम बनाने वाले को। 

नैना ने उतरते ही दुर्ग की ऊँचाई का अनुमान लगाया।  पत्थर ही पत्थर। नक़्काशियां जिनमें कृत्रिम रंग भरे हैं। उसी की मुस्कान की तरह। मुखौटे पर मुखौटा। 

उदासी कैसी खाई है ना कि न उभर पाते हैं न ज़मीन पर पैर टिका पाते हैं। अधरझूल में मन हर क्षण। 

मुश्किल रास्ता है। जीप नुमा गाड़ियाँ ही दुर्ग तक पहुँचा सकती हैं। चलाने वाले तजुरबेकार चालक। सब तस्वीर लेने में उलझे हैं नैना कहाँ उलझी है पता नहीं। राजा रानी की कहानियों में या तलवारों की नोक पर चढ़े अस्मिताओं के युद्ध में ?

गाड़ियों की प्रतीक्षा लम्बी हो गई है। सूरज ने भी अपनी पहाड़ी की ओट ले ली है। कहीं आकाश में दूर एक तारा टिमटिमा गया है। घंटियों के बजने की आवाज़ें शहर के किसी उजाड़ मंदिर से आ रही हों शायद। कुछ चमगादड़ें मेहमानों के रवैये का जायज़ा ले रही। 

गाड़ियाँ दरवाज़े पर है। नैना का शरीर भारी। जाने कितनी बार टूट चुकी हड्डियों का बोझ लेकर चढ़ तो गई गाड़ी में मगर उसका मन न लौट आने वाली यात्रा पर जाने को आतुर था। 

जीवन के प्रपंचों से घबरा गई है वो। दर्द का भारी सलीब उठाए फिरती है बस दर्द समझ आए तो दवा हो वरना क्या कीजिए भला। पहुँच गए हैं चोटी पर। सुंदर हवादार कमरे। गाइड के पास बड़ी सी टॉर्च बस रोशनी का एक वही स्रोत। रास्ता दिखाता आगे बढ़ रहा है। 

यहाँ रानियों को सती होने की जगह है। वो कुंड जहाँ पानी लबालब भरा रहता था। कहते हैं बिन ब्याहि सती होने वाली स्त्रियों की आत्माएँ आज भी भटकती है यहाँ। कुंड की सीढ़ियों पर कबूतर ही कबूतर। एक तरफ़ से पूरा शहर रोशनी में नहाया हुआ दिखाई द रहा था। औ दूसरी तरफ़ शांत अंधेरे में डूबा पत्थरों का आलीशान दुर्ग। 

रानी का शीशमहल और ऊपर है। सभी चढ़ाई चढ़ने लगे। अमर ने नैना का हाथ पकड़ लिया और चढ़ने लगा। अचानक नैना ने हाथ खींच लिया। अमर के क़दम ठिठक गए। 

चलो नैना, अब तो ज़रा सी है!  

बस मैं थक गई। मैं यहीं बैठ जाती हूँ। मुझसे नहीं होगा। दिल बैठा जा रहा था नैना का। ऊँचाई पर खड़ी होती है तो गहराई खींचती है नीचे। बस एक क़दम और। 

नहीं। मैं तुझे अकेले यहाँ नहीं छोड़ सकता। चल उठ चल। अमर ने नैना के हाथ जकड़ लिए। 

दोनों चल दिए। कमरों के बाद कमरे। सीढ़ियाँ अंधेरी छतों को जाती हुईं। यहाँ रानियाँ सजती सँवरती थीं। यहाँ गाना बजाना हेता था। यहाँ से दुर्ग का मंदिर दिखता है। संध्या आरती के समय अपने राजा की आरती उतारती हैं रानियाँ। छोटे छटे काँच के टुकड़ों में नज़र बंद है नैना की परछाईं। वह घूरना चाहती है। कौन है ये। घृणा सी क्यों हो रही इससे?  अपने में उलझी नैना कमरे से बाहर आ गई। चारों तरफ़ अंधेर घुप्प कमरे। किसी एक में भी जाकर बैठ जाए तो कोई ढूँढ भी न पाए। क़दम बढ़ने लगे। सोच और माँसपेशियों के बीच क्या होता है वो नदारद था। सही ग़लत की पहचान शायद। क़दम बस कुछ दूर बढ़े ही थे कि एक आवाज़ ने रोक लिया। 

नैना। नैना? साथ में रह यार। यहाँ साँप बिच्छू भी हैं बहुत। 

नैना का दम भर आया। ये आदमी मुझे बाँध कर रखना चाहता है। मैं रानी नहीं। आरती नहीं उतार सकती इसकी। 

खीझ से भरी नैना कमरे में लौट आई। बस एक आँसू रह गया आँख के कोने में। 

क्या सोच रही हूँ। सोचती चली जा रही हूँ। 

अमर ने फिर हाथ पकड़ लिया। इस बार थोड़ा और कसके। कोई अनजान डर तो होगा उसे भी। 

पर मेरे लिए प्रेम क्यूँ? उनके किसी रिश्ते में खरी नहीं उतरती मैं। फिर भी इतनी परवाह? 

कुछ अनदेखी आवाज़ें गहराने लगती हैं। कहते हैं दुर्ग के सबसे ऊपरी हिस्से में घोड़ों की पदचाप सुनाई देती है। वहाँ कोई भी जाता है तो अकसर लौट के नहीं आ पाता। दुर्ग बेहद शांत है। मुझे सुनना है इसे। 

गाइड ने टॉर्च आगे की। यह बहुत प्राचीन मंदिर है शिव जी का। 

मैं नहीं जाऊँगी। 

क्यूँ ?

मेरा कोई वास्ता नहीं ईश्वर से। 

ये क्या? हर बात पर विद्रोह? आख़िर क्यूँ?

हाँ मैं विद्रोही हूँ। मशाल लेकर निकल पड़ूँगी। सब जला कर राख कर दूँगी जो मुझे जीने की सीख देगा। मंदिर भगवान तुम प्रेम सब जला दूंगी। 

नैना का मन अशांत होंठ चुप। 

नैना चल ना। अकेले क्या करेगी यार? 

मेरे पैर अब सच में दुख रहे हैं अमर। 

अच्छा चल यहीं बैठ जा। ध्यान रखना। 

सबके अंदर जाते ही नैना खड़ी हो गई। दोनों तरफ़ फैले हुए अंधेरे रास्ते। किसी भी ओर मुड़ सकती है। 

बहुत शांत है सा जगह। लम्बे चौड़े गाइड न नैना पर टॉर्च की रोशनी डाली। नैना फिर बैठ गई। मैं यहीं रहता हूँ। ये हवा ऐसे ही चलती रहती है सुबह शाम। मैं अपने जाप में लीन रहता हूँ। 

शांति, मोक्ष, जाप उफ़ !! मृत्यु क्यूँ नहीं कहता कोई?  

कितने जन मरे हैं अब तक इतने ऊपर से गिर कर?

कोई नहीं सा। पूरे दुर्ग की रखवाली को हम पाँच लोग हैं। मजाल है कोई हादसा हो ऐसा।

भवें फैल गई नैना कीं मन सिकुड़ गया। 

सब लौट आए थे। 

सपना अपने स्मार्ट फ़ोन पर आकाश दिखाने लगी। कौन सा तारा क्या कौन सा ग्रह कहां। अजीब धुन है।  नैना आह वाह में पूरा जीवंत दिखने कि कोशिश कर रही थी। 

गाड़ियाँ लौट आईं थी। उतरने का समय हो चला है। अमर ने फिर  नैना का हाथ पकड़ कर चढ़ा दिया उसे गाड़ी में। ख़त्म होती है कहानी। लौट आते हैं धरातल पर। छुपा के रखने वाले क्षण हैं ये। मृत्यु की सरल चाह मन में लिए चेहरे पर मुस्कान सजाए निकल पड़ी है नैना फिर से रिश्तेदारियाँ निभाने।

Monday, April 16, 2012

परिवर्तन

" अपना नित्य कर्म निपटा कर गुरु श्री योगी अपने कक्ष में अपने आसन पर विराजमान हो गए! साधना का समय हो रहा था ! गुरु माँ को समझ ही नहीं आया वे अब क्या करें ! सो वह भीं नीचे आसन लगा वहीँ बैठ गईं और उस कक्ष के एक कोने में स्थापित गोपाल की मूर्ति को निहारने लगी !
"हे श्याम ! तुम्हारा खेला किस को ज्ञात हो सकता है ! इस राजकुमारी को तुम ने कहाँ ला खड़ा किया ! तुम ने कैसे नियति का शिल्प उकेरा है! नहीं ! आक्रोश नहीं मेरे भीतर ,पर प्रभु विडंबना है ! "
गुरु माता की उपस्थिति श्री योगी की साधना में बाधक बन रही थी ! वे भी श्याम को ताकने लगे !
" ये किस विवाशातामें मुझे डाल दिया तुमने प्रभु ! कैसे अब मैं तुम्हारी निर्विघ्न भक्ति करूँ ! ? "
कुछ विचार कर श्री योगी ने गुरु माता को आदेश दे दिया ! " जाओ देवी ! मेरे कक्ष की गागर अतृप्त है ! थोडा जल भर लाओ नदी तट से ! " गुरु माता श्री योगी को ताकने लगीं! प्रातः से ही वह अपने कार्य में जुट गईं थीं ! महल में उन्होंने अपितु कोई कार्य अपने हाथों से नहीं किया था ! वह अब भी नहीं करना चाहती थीं ! परन्तु श्री योगी को किसी कार्य के लिए न कह पाना उन के संस्कारों में मान्य नहीं था ! वे बिना कुछ प्रश्न किये उठ खड़ी हुईं ! गागर उठाई ! श्याम को एक बार पुनः निहारा और कक्ष से बाहर आ गईं !
आश्रम से नदी तट तक का मार्ग घने भायावह वन से घिरा हुआ था ! गुरु माँ अपनी स्मृतियों में खोई आगे बढ़ रहीं थीं ! उन्हें उस वन में गूँज रही चिड़ियों का गान व जंगली पशुओं की चिंघाड़ भी सुनाई न पड़ रही थी ! यकायक वह रुक गयीं ! कहीं से किसी के रुदन का उन्हें आभास हुआ ! थोडा आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा एक नवजात शिशु , नितांत अकेला , एक तरुवर के नीचे छोटे सी टोकरी में हाथ पैर मार रहा था ! उसके आस पास कोई भी न था ! वह उसके पास पहुंची और उसे निहारने लगीं !
" ओह ! बहुत ही सुनदर शिशु है ! इसके माता पिता कहाँ गए ! अपने शिशु को ऐसी वीभत्स स्थान पर अकेला छोड़ कर ?! उन्होंने सोचा हो सकता है नदी से जल लेने गए हों ! "
वह बहुत देर तक वहीँ खड़ी रहीं उस शिशु की रक्षा हेतु उन्हें यही करना उचित लगा ! अधिक समय होने के पश्चात गुरु माता का मन व्याकुल हो उठा ! वह विचारने लगीं कहीं उस शिशु को कोई वहां जानबूझ कर तो नहीं छोड़ गया है ! खड़े खड़े गुरु माँ को संध्या होने को आई ! मन अधिक ही विचलित होने लगा !
" आश्रम पहुँचनाहै! क्या करूँ इस शिशु का ? कैसे इसे ऐसे ही इस भयावह वन में छोड़ जाऊं ! ? अपितु किसी को इसे लेने आना होता तो वह अब तक आ ही गया होता ! में इसे अपने साथ लिए चलती हूँ !" गुरु माँ ने उस नवजात शिशु को पुचकारते हुए अपने आँचल में छुपा लिया ओर आश्रम की ओर बढ़ने लगी ! भीतर भीतर प्रसन्न थीं ! कोमल से शिशु का आभास उनके देह को स्फूर्ति दे रहा था ! अपनी व्यथा भूल उस बालक की सरस रंग अलौकिक से प्रतीत हो रहे थे !

आश्रम में श्री योगी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ! उन्हें भय था कोई विपत्ति न आन पड़ी हो गुरु माँ पर ! एक राजा की बेटी है ! इतना तो श्री योगी का उत्तरदायित्व बनता था ! "कितना समय व्यर्थ कर दिया देवी ! आप तो जल लेने गईं थी
न ! गागर कहाँ है ! ? ओर यह आँचल में क्या बाँध लाईं हैं आप?
" गुरु माँ ने धीरे से अपना आँचल हटा से उस शिशु को श्री योगी के समक्ष उजागर किया ! श्री योगी को समझ ही न आ रहा था वह क्या कहें या क्या करें ! निशब्द ही कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध रह गए!" यह क्या देवी ,? किसका शिशु है यह ? आप इसे यहाँ क्यूँ ले आईं हैं? "" हे देव !यह नवजात शिशु वन में अकेला एक तरुवर की ओट रुदन कर रहा था ! मैंने बहुत समय तक किसी के आ जाने की प्रतीक्षा की परन्तु कोई भी नहीं आया !वहां भयावह वन में इसे कैसे छोड़ आती प्रभु, सो आश्रम ले आई ! ""परन्तु...! क्या पता किस का शिशु है ! ? हम इसे कैसे अपने आश्रम में स्थान दे सकते हैं ? "
"मेरा पुत्र ,मेरा पुत्र ! " अनायास ही किसी के चिल्लाने के स्वर सुनाई देने लगे ! " मेरा पुत्र कैसे चुरा लायीं तुम ! ?" क्रोध में तिलमिला रहे एक बहेलिया अपनी अर्धांगिनी के साथ गुरु माँ की ओर देख बोला ! गुरु माँ समझ ही न सकी यह क्या हो रहा है ! " आपका पुत्र ! ? परन्तु मैंने तो बहुत अधिक देर तक उस स्थान पर प्रतीक्षा की थी !
"शिशु को छीनते हुए बहेलिया श्री योगी की ओर मुख कर खड़ा हो गया !"गुरु देव , न्याय कीजिये ! यह तो मेरा पुत्र उठा लाइ ! हम ने न देखा होता तो हमें कभी ज्ञात नहीं होता की हमारा पुत्र कहाँ है ! न्याय कीजिये प्रभु न्याय कीजिये !""यह व्यक्ति क्या कह रहा है देवी ! आपने ऐसा क्यूँ किया !? " श्री योगी वैसे भी इस स्त्री को अपने आश्रम में रखने के समर्थक नहीं थे ! परन्तु राजा का दिया दान कैसे ठुकरा देते! वे तो कब ही से गुरु माँ के द्वारा किसी त्रुटी के हो जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे !
"आपने इस शिशु को क्यूँ उनके माता पिता से अलग कर दिया क्यूँ ?"गुरु माँ अचंभित हो श्री योगी को ताकने लगीं ! "मेरा विश्वास कीजिये प्रभु ! मैंने इसे चुराया नहीं है ! वन में इसे अकेला पा मुझे भय लगने लगा था कहीं इसे कुछ हो न जाए ! क्या मुझ से अधिक आपको इस बहेलिये पर विश्वास है ? "तभी बहेलिया चील्ला कर बोला ," अरे ! और कितना असत्य कहोगी तुम ! किंचित ही तुम हमारी निर्धनता का परिहास कर रही हो ! प्रभु न्याय कीजिये !"
"देवी ! इससे पहले की मेरा क्रोध बढ़ने लगे , आप यहाँ से प्रस्थान कर जाइए ! चाहे तो पिता के यहाँ या कहीं भी ! परन्तु अब यह आश्रम आपको शरण नहीं दे सकता ! ""पर प्रभु ! मैं तो आपकी अर्धांगिनी हूँ ! आप क्यूँकर मुझे अपने आश्रम से जाने को कह कर रहे हैं ! केवल इस कारण वश की मैं एक स्त्री हूँ ! ? ""आप व्यर्थ ही मुझ से प्रश्न कर रही हैं देवी ! यह मेरी आज्ञा है कि आप इसी समय यह आश्रम छोड़ कर चलीं जाएं ! "बहेलिये की ओर मुख कर बोले," मैं इस त्रुटी की क्षतिपूर्ति कैसे करूँ! ? इस आश्रम में जितना भी धन राजा ने दान किया है मैं आपके पुत्र को देता हूँ ! ऐसे दान का यही उपयोग उचित है ! "
गुरु माँ ने बहेलिये के मुख पर खेलती एक कुटिल हंसी को भांप लिया था ! परन्तु वह जानती थीं कि कोई भी उनकी बात को तुल्य नहीं देगा ! स्त्री है न वह...."
मुक्ता ने हडबडाहट में किताब बंद कर दी !
"क्या हुआ मुक्ता ?सुनाओ न ! फिर क्या हुआ ! गुरु माँ ने आश्रम छोड़ दिया बिना अपनी बात रखे !? किताब क्यूँ बंद कर दी तुमने ?"
मुक्ता कुछ ओर ही सोचने में मग्न थी ! "मेरा मन नहीं है अजीत ! बस अब तुम खुद ही पढ़ लो ! मैं तो उकता गई हूँ !"
"अरे तुम जानती हो ! तुम्हारी कहानियां तुम्हारे मुंह से सुनना अच्छा लगता है ! पढने का मेरा मन नहीं होता ! तुम्हे हुआ क्या है !"
मुक्ता उठ खड़ी हुई! " मुझे नहीं सुनानी यह कहानी ! मुझे नींद आ रही है अजीत ! तुम मुझे बार बार मत बोलो ! इतनी स्वतंत्रता तो मुझे मिलनी चाहिए !"इतना कह कर मुक्ता वहां से चली गई !
अजीत को कुछ कुछ स्पष्ट समझ में आ रहा था ! जो कहानी मुक्ता आज उसे सुना रही थी ...नारी का अपमान ओर भेदभाव की ऐसी कई कहानियाँ मुक्ता पहले भी लिख चुकी थी ! शायद वह खुद ही अनुभव और अनुभूति के बीच की शून्यता को समझने में असहाय थी ! मुस्कुराता हुआ अजीत बत्तियां बंद कर कमरे में पहुंचा !
मुक्ता निर्जीव सी औंधे मुंह पलंग के एक कोने में दुबकी हुई थी ! अजीत ने चुप रहना ही ठीक समझा ! ओर पलंग के एक ओर जाकर लेट गया ! कुछ देर केवल पंखे की झाएं झाएं ही सुनाई पड़ रही थी ! शब्दों का अकाल सा पड़ गया था ! तभी मुक्ता ने चुप्पी तोड़ी ओर औंधे लेटे लेटे ही बोली ," अजीत ! हम कल्पना की उड़ान तो भरते हैं पर यह स्वीकारते ही नहीं कि परिवर्तन आया है ! मुझे इस परिवर्तन पर अब कहानी लिखनी है !यथार्थवादी कहानी !" अजीत ने प्यार से हाँ में सर हिलाया ओर मुक्ता के बाल सहलाने लगा !
"मुक्ता , यथार्थवाद की परिभाषा जो तुम मानती हो वह क्या सभी के लिए एक से माइने रखती है ? समाज के जिस परीपेक्ष में हम रहते हैं वहां परिवर्तन आया है ! तुमने उसे महसूस किया है पर वह सभी जो आज भी सामाजिक कुरीतियों और अवसादों से घिरे हैं उनका उल्लेख करना भी तो साहित्य का धर्म है ! हाँ तुम्हे जो मन से सही प्रतीत होता हो उसी पर लिखो ! मैं तो केवल इस सन्दर्भ में चर्चा कर सकता हूँ ! "
" ठीक ही कह रहे हो अजीत ! मगर मुझे यह परिवर्तन सामजिक स्तर पर दिखाई देने लगा है ! और में इसी परिवर्तन का उत्सव मानना चाहती हूँ ! " यह कह कर मुक्ता ने आँखें मूंद लीं !
दोनों मन ही मन अपनी अपनी कहानियाँ बुनने में लीन हो गए !

Friday, October 14, 2011

घर की खिड़की से हर मौसम कितना सुहाना लगता है...

"घर की खिड़की से हर मौसम कितना सुहाना लगता है " ...लता सोचने लगी !

बाहर बारिश की बूँदें टप-टपाटप छज्जे पर पड़ती एक लय बना रही थीं !


"लोग तो यूँही कहते हैं कि इस शहर में बरसात का मौसम बहुत ही भयानक होता है ! यह तो मनमोहक है! रोमांचक ! "


लता को इस शहर में आये कुछ ही दिन हुए थे ! जिस शहर में रहने को छत नहीं मिलती वहां उसके पती ने एक अच्छा ख़ासा घर ढूंढ लिया था!

केवल एक बरामदे की कमी लता को हमेशा खलती थी!


परिवार के तीनों सदस्य इस शहर के व्यस्त जीवन में रच बस गए थे ! विनोद का कार्यालय शहर की भव्यता को देख बहुत पास ही था ! और डिम्पी की पाठशाला

भी दूर नहीं थी!

अपने पांचवे माले के घर की खिड़की पर सर टिका लता अपने मनपसंद मौसम का आनंद ले रही थी ! खिड़की पर लगे लोहे के जंगले से हाथ बाहर निकाल कुछ बूँदें अपनी हथेली में संजो ली और मुंह पर उड़ेल दी ...."ओह ! सुरमई संगीत सी हैं ये बूँदें ! " एक प्यारी सी मुस्कान लता के होठों से अटखेलियाँ कर रही थी ! उसका रोम रोम कविता रचना चाह रहा था!


"ट्रिन-ट्रिन ,ट्रिन-ट्रिन ...!"

यकायक बजे टेलेफोन की घंटी से लता चौंक गई! इधर उधर देखने लगी !


"ट्रिन-ट्रिन ,ट्रिन-ट्रिन ...!"


"हेल्लो ..?!"

"हेल्लो लता ! "...कुछ उत्तेजित स्वर में विनोद की आवाज़ सुन लता विचलित हुई !

"क्या...क्या हुआ विनोद?"

"लता ..लता में यहाँ बारिश में फंसा हूँ ! बहुत देर से तुम्हे फ़ोन लगाने की कोशिश कर रहा हूँ पर नेटवर्क ही नहीं था! मुझे थोडा समय और लगेगा ! तुम घबराना मत! "

"पर विनोद इस बारिश में तुम दफ्तर से निकले ही क्यूँ ?क्या ज़रुरत थी ? "


कुछ झल्लाते हुए विनोद ने जवाब दिया ...

"अपनी मर्ज़ी से नहीं निकला लता ! दफ्तर बंद कर दिए गए हैं! तूफ़ान आने का डर...!" टेलीफ़ोन कट गया!


लता स्तब्ध खड़ी रह गई !उसे यह सब समझ ही नहीं आ रहा था ! उसने खुद को संभाल कर विनोद का नंबर लगाया ! फ़ोन बंद था!

जो मुस्कान थोड़ी देर पहले उसके होठों पर थी वह अब नदारद हो चुकी थी! अब तो परेशानी की रेखाएं उसके ललाट पर उभर आईं थीं !


उस ने झट पट टीवी चलाया !

'तूफ़ान आने की सम्भावना है ! सभी रास्तों में जाम लगा है ! सड़कों पर नदिया बह रही है! सरकार ने सभी दफ्तरों एवं पाठशालाओं को बंद करने के निर्देश दे दिए हैं ! "

"पाठशालाओं को बंद करने का ...?!"

लता घबराते हुए फ़ोन बुक पर डिम्पी के स्कूल का नंबर ढूँढने लगी !


"जी हाँ ! स्कूल बंद कर दी गई है ! और सभी बच्चे अपनी अपनी बसों में बैठ चुके हैं ! आपके घर के नीचे आकर आपको काल कर दिया जाएगा ! "

इतनी भावविहीन आवाज़ सुन लता का गुस्सा चरम सीमा तक पहुँच गया था !

"आप लोगों ने इतने छोटे छोटे बच्चों को इस बारिश में सड़कों पर निकाल दिया ?

आप लोग इतने गैरजिम्मेदार कैसे हो सकते हैं! बारिश रुकने का इंतज़ार नहीं कर सकते थे आप लोग ?"

"मैडम बारिश तो पता नहीं कब बंद होगी ! आप चिंता न करें ! आपकी बेटी आप तक सही सलामत पहुँच जाएगी ! "


लता निर्जीव सी सोफे में जा धंसी !

लाल लाल आँखों में न जाने कितने नकारात्मक विचारों को उसने जीवंत कर लिया था !

समाचारों में बार बार दिखाए जाने वाले दृश्यों से वह और विचलित हो रही थी ! गुस्से में जा कर उसने टीवी बंद कर दिया ! चरों और के सन्नाटे में बारिश की बूंदों का संगीत कब शोर में बदल गया पता नहीं ! उसने बारिश को कोसते हुए फट से जाकर खिड़की बंद कर दी !


"कैसी मनहूस बारिश है ! बंद होने का नाम ही नहीं ले रही ! उफ़! "

घंटा भर भी उसने कैसे निकाला उसे पता नहीं ! बार बार आंसुओं को निगल रही थी ! "कुछ नहीं होगा ! सब अच्छा होगा ! "


"टिंग टोंग..!"

दरवाज़े की घंटी बजते ही लता सुन्न सी हो गई ! अब तक वह इतना कुछ सोच चुकी थी कि हर तरह की आशंकाएं उसे घेर रहीं थीं !


"टिंग टोंग ...टिंग टोंग !"


अपने विचारों से बाहर आ उसने फट से दरवाज़ा खोला !


सामने विनोद खड़े थे ! पूरे भीगे हुए !बहुत थकान थी उनके चेहरे पर ! मगर घर लौट आने का आनंद भी !

विनोद को सामने देख लता खुद को रोक ही नहीं पाई ! और जोर जोर से रोने लगी

इतनी देर से जो आंसू वो पी रही थी वे सब एक साथ बाहर आने लगे !

विनोद मुस्कुराने लगा! और लता को अपनी बाहों में भर लिया !


"विनोद... डिम्पी...."

"मैंने बात की है अभी अभी बस के कन्डक्टर से! कुछ देर में आ जाएगी ! चलो नीचे जीने में चल कर खड़े होते हैं ! डिम्पी भी घबरा गई होगी ! हमें देख कर खुश हो जाएगी ! "


विनोद ने कपडे बदले और वो दोनों नीचे जीने की सीढियों पे जा बैठे !

विनोद के पास होने से लता की सारी चिंताएं दूर हो चुकीं थीं ! विनोद के धैर्य और सहनशीलता उसके मुकाबले कहीं ज्यादह थी ! अब तो उसे डिम्पी के आने की प्रतीक्षा भर थी बस !


फ़ोन बजा !

"सर ! बस सोसाइटी के बाहर खड़ी है! आप अपनी बेटी को आकर ले जाएं ! "

"हाँ हाँ ! मैं आता हूँ ! " विनोद ने फ़ोन काटते हुए लता से कहा ! "तुम बैठो मैं ले आता हूँ ! "

लता ने हाँ में सर हिला दिया !


कुछ क्षणों के बाद पानी में उछलती कूदती डिम्पी दिखाई दी ! लता के मुख पर फिर से प्यारी सी मुस्कान खेल गई ! डिम्पी खूब नहाई उस दिन बारिश में !

जीने की सीढियों पर बैठे विनोद और लता उसे निहार रहे थे !

"अब तुम एक अच्छी सी कविता लिखना इस मौसम पर !" विनोद ने लता के काँधे पर हाथ रखते हुए प्यार से बोला !

"हाँ ! कविता तो लिखूंगी ही ! "

लता ने मुस्कुराते हुए कहा ,

"घर की खिड़की से तो हर मौसम सुहाना लगता है ! मगर वो आम आदमी जो अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इन बदलते मौसमों के थपेड़े खाता है उसके दुःख को समझना बहुत मुश्किल है ....!"



Tuesday, September 6, 2011

माँ की ममता....

हम ने सुना था की ऊँचे उस पहाड़ की चोटी पर एक मंदिर है ! वहां जो भी श्रद्धालु जाते हैं वे हर मुराद पूरी पाते है ! मुझे भी जाना था! उसी मंदिर में घंटियों की नाद के बीच कुछ माँगना था! ये अलग बात है की जब मेरे पति ने पूछा की क्या माँगना है तो में निरुत्तर थी! क्या माँगना है? कुछ भी तो नहीं ! सब कुछ तो है मेरे पास ! तो क्यूँ जाना है वहां ?
जाना तो है ! मन में जो ठान ली है! चलो ! हम दोनों निकल पड़े नंगे पैर उस मंदिर की ओर!" जय राम श्री राम" का उदघोश करते, निकल पड़े ! हमारे साथ श्रधालुओं का एक झुण्ड सा था! सभी को कुछ माँगना था ! बस मैं ही तो थी जो ये निश्चय नहीं कर पाई थी की आखिर माँगना क्या है !
उसी झुण्ड में एक अधेड़ उम्र की औरत भी थी! अकेली ! उम्र के इस पड़ाव पे भी वो हिम्मत जुटा पाई थी इस पहाड़ी को चढ़ने की ये बहुत अचरज की बात थी! उन के प्रति हम दोनों का ही मन उत्तरदायित्व ले बैठा था ! माँ जी माँ जी कर हम ने उन को हर मुमकिन सहारा देना चाहा! वे जहाँ जहाँ रूकती हम भी रुक जाते ! पता नहीं किस कारणवश वे इस दुर्गम मार्ग पर निकल पड़ी ! बहुत पूछने पर वे फिर रो ही पड़ीं !
वो मेरा इकलौता बेटा है ,मृत्यु शय्या पर लेटा है! जाने कब टूट जाए उसकी साँसों का धागा ! मैंने भी तो आज तक इश्वर से कुछ नहीं माँगा ! डॉक्टर कहते हैं इश्वर ही कुछ कर सकते हैं ! इश्वर ही तो हैं जो मेरे दुःख हर सकते हैं!
हम दोनों मन में ठान चुके थे अब तो इन माँ जी को दर्शन करवा लाना हमारा कर्त्तव्य है! वे थकती तो हम भी रुकते वे चलती तो हम भी चलते ! धीरे धीरे मंदिर की घंटियों का नाद हल्का हल्का सुनने में आया! हम प्रफुल्लित हुए ओर माँ जी की आँखों में अश्रुधारा बहते देख थोड़े से भयभीत हुए! उन्हें उत्साह दिला कर फिर से आगे बढ़ने लगे ! पास आते मंदिर की घंटियों की गूँज में,"जय राम श्री राम " के बढ़ते उदघोश में हम खोने लगे! दर्शन कर ने को जाने कहाँ से एक जन सैलाब उमड़ पड़ा था !
जैसे तैसे माँ जी के हाथ थाम कर उन को दर्शन करवाए ! इस आपा धापी में मुझ को क्या माँगना था याद ही न आए! बस इश्वर से माँ जी के बेटे के लिए की प्रार्थना !
सब से बड़ा प्रश्न था उन को इस भीड़ से बाहर निकालना ! हाथ पकड़ कर उनको ज्यूँ त्यूं बाहर खींच रहे थे ! लेकिन जाने कैसे हाथ छुट गया ! हर जगह ढूँढा पर मन रूठ गया ! भारी मन ले नीचे उतर रहे थे ! आने जाने वालों को रुक कर पूछ रहे थे ! यही नियति है यही सोच कर पहाड़ी से नीचे उतरने लगे !
देखा थोडा नीचे कुछ लोग झुण्ड बना कर खड़े हुए थे! मन आशंकित हुआ ! जिज्ञासा जागी के क्या हुआ! उस झुण्ड में घुस कर देखा !
माँ जी ! चिर निद्रा में सोई हुईं ! चहरे पर कोई भाव नहीं थे ! अपितु सब ने उठाना चाहा था उन को ! पर नाकाम रहे थे ! लगता था जग झंझट से छुट गईं थीं! आह! मेरे मन से चीत्कार उठी थी! अपने बेटे को जीवन दान दिलाने आई खुद अपना जीवन गवां बैठी ! किन्तु माँ की ममता के पराकाष्ठा तक पहुँचने की कथाओं में ये भी तो एक कथा ही थी ...केवल!

Sunday, August 28, 2011

डर...

स्मिता अपनी बेटी स्वीटी को स्कूल छोड़ कर कार में चाबी लगा ही रही थी की फ़ोन की घंटी बज गई !
-इस वक़्त कौन होगा पता नहीं ,
"हेल्लो!"
"हेल्लो !स्मिता बोल रही है!"
"हाँ ! आप कौन ?"
"पहचाना नहीं न स्मिता ! मैं प्रिया !"
इस नाम के कानो में गूंजते ही स्मृतियों की रेल सी स्मिता के ज़हन में बनने लगी !
-मेरी सब से अच्छी दोस्त ! बचपन से लेकर सांतवी कक्षा तक साथ ही पढ़े थे! सब तो येही समझते थे की हम जुड़वाँ बहने हैं ! जहाँ भी जाते हर जगह साथ ही दिखाई देते थे! अरे एक दुसरे के बिना तो जीवन को सोच भी नहीं पाते थे! पर प्रिया ने मेरे साथ ऐसा क्यूँ किया था? ऐसा क्या हुआ था की इतने सालों की दोस्ती कुछ क्षणों में ही खत्म कर दी?
स्मिता का मन तो फ़ोन काट देने का हो रहा था ! मगर प्रिया से आज भी वो पूछना चाहती थी! क्या हुआ था तब ?
"क्या हुआ स्मिता ?"
"कुछ नहीं ! कैसी हो प्रिया ?"
"अच्छी हूँ..तुम कैसी हो?!"
"ठीक हूँ ! आज तक एक सच्चे दोस्त की तलाश में हूँ ! "
''में तुमसे मिलना चाहती हूँ स्मिता ! तुमसे माफ़ी मांगना चाहती हूँ ! तुमसे बात करना चाहती हूँ! तुम्हारे शहर में हूँ ! माँ से तुम्हारा नंबर लिया था! में सिटी माल के काफी शॉप पर तुम्हारी राह देख रही हूँ ! प्लीस आजाओ!!"
बोलते बोलते प्रिया की आवाज़ थकी सी लगने लगी !
न चाहते हुए भी स्मिता ने हाँ कह दिया ! और घडी देख कर कार स्टार्ट कर दी!
-अभी स्वीटी की छुट्टी होने में चार घंटे हैं! समय पे आ ही जाउंगी! वरना चोव्किदार को तो पैसे दे ही रखे हैं! ध्यान रखेगा मुझे देर हुई तो!पर ये प्रिया अब क्यूँ मुझ से मिलना चाहती है? हुंह! कोई बहाना बना देगी अब! मगर बस! मैं उस से और मेल जोल नहीं बढ़ा सकती !लेकिन मेरे सवालों का उसे जवाब तो देना ही होगा!
इसी उधेड़ बुन में स्मिता सिटी माल पहुँच गई थी!गाड़ी पार्क कर के काफ्फी शॉप पहुंची तो वहां दो चार लोगों के अलावा कोई नहीं था! चारों तरफ स्मिता ने नज़र दोड़ाई! काफी शॉप के एक कौने दुबकी हुई सी एक औरत पे नज़र गई !
-नहीं ! ये तो प्रिया हो ही नहीं सकती! प्रिया का उस समय भी कितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था!
और फिर से स्मिता उन्ही स्मृतियों में खोने लगी ! चुलबुली ,हंसमुख, चपल ....सुन्दर ! वो प्रिया ...
"स्मिता !"
इस आवाज़ ने स्मिता को अपने स्वप्नलोक से बहार ला खड़ा किया!
वही कोने वाली औरत ... प्रिया ! ?
"नामुमकिन!?"
प्रिया की इस शब्द पर आँखें नीची हो गईं! जैसे उस ने कोई गुनाह किया हो! गुनेहगार तो वो थी ही स्मिता की नज़रों में !
काफी का आर्डर देकर दोनों उसी कोने वाली मेज़ के इर्द गिर्द बैठ गए !
स्मिता ने फिर घडी देखी! ज्यादह समय नहीं था उस के पास ! प्रिया को घूरने सी लगी ! अब भी उसे यकीन तो नहीं हो रहा था !
बेडोल शरीर ! अजीब सी झूकी हुई कमर! और गर्दन ... पता नहीं किस बोझ से दब गई थी! ? क्या यौवन अवस्था में आते आते कोई इतना भी बदल सकता है!
" कहो प्रिया क्यूँ बुलाया तुम ने? मुझे मेरी बेटी को लेने जाना है ! जल्दी करो !"
प्रिया के चहरे पर पड़ी झुर्रियां और घहरा गईं!
"तुम मुझ से नहीं पूछोगी क्या हुआ था तब की..."
"यही पूछने आई हूँ प्रिया ! आखिर क्या हुआ था? मैंने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा ? हम दोनों एक दुसरे के लिए क्या नहीं थे! और एक दुसरे के अलावा और कोई दोस्त भी तो नहीं था हमारा? और आज तक तुम्हारी वजह से कोई दोस्त नहीं बना पाई हूँ !बताओ क्या बहाना है तुम्हारे पास ! ? मुझ से भी अच्छी कोई और दोस्त तुम्हे मिली होगी ...और .."
इतना बोलते हुए स्मिता की नज़र प्रिया की आँखों से बरसते आंसुओं पर गई! उसे लगा शायद कुछ ज्यादह ही बोल गई थी वो! उसे नहीं कहना चाहिए था!
"सॉरी ! सॉरी प्रिया ! वो गुस्से में कुछ ..."
"नहीं स्मिता... तुम्हारी गलती नहीं है! गलती मेरी है और मुझे माफ़ी मांगनी है तुम से! मुझे लगा था तुम नहीं आओगी ! जो मैंने तुम्हारे साथ किया ...तुम्हारी जगह कोई और होता तो शायद नहीं आता! पर अच्छा है तुम आज आई ! इतने सालों का गुबार तुम्हारे अलावा किसके सामने निकाल पाती मैं!
तुम्हे याद है ... छठी कक्षा की परीक्षाओं के बाद हमने कितनी योजनाएं बनाएँ थी...! कहाँ कहाँ जाएँगे क्या क्या करेंगे ! मगर.."
"हाँ मगर तुम अपनी किसी दीदी की शादी में अपने भुआ और उनके बच्चों के साथ गाँव चली गई थी...मुझे धोखा देकर !अचानक से! "
"हाँ ! हमें ट्रेन में जगह नहीं मिली थी! उसी कम्पार्टमेंट में एक बड़ा लड़का था ! दिन में उस लड़के ने हम सब से बच्चों की तरह बातें कीं ! हम सब भी उसे भैया भैया कह कर उस के साथ खेल रहे थे! हम सब तो बच्चे ही थे न! रात में और भुआ को एक सीट मिली अगले कम्पार्टमेंट में ! और हम तीनों भाई बहन नीचे एक चद्दर बिछा कर सो गए!
हमारे पास ओढने के लिए कुछ भी नहीं था ! जिस के साथ पुरे दिन भैया भैया कर के खेल रहे थे उस ने उदारता दिखाते हुए अपनी बड़ी सी कम्बल अपनी सीट से लटका के हम बच्चों पर डाल दी!
स्मिता ... कल्पना भी नहीं कर सकती तुम क्या सब हुआ उस रात !उस लड़के ने हर तरह से मुझे छूने की कोशिश की! कभी हाथ पकड़ा.. कभी खींचना चाहा ! और मैंने वो रात अपने को बचाने में कैसे निकाली थी मुझे ही पता है ! सही गलत समझ नहीं आता था! क्या हो रहा था ... बस उस समय यही लग रहा था की घिन्न हो रही है और ये नहीं होना चाहिए! पूरी रात खुद को कभी सीट के नीचे कभी सामान के पीछे छुपाती रही! ऐसी बातों की समझ नहीं थी ... चिल्लाना नहीं आया मुझे! और भुआ जिस सीट पर सोई थी उनके पास जाकर पूरी रात बैठी रही! उस दिन मुझे खुद से घृणा होने लगी थी! ..."
स्मिता की आँखें भी भर आई !
"प्रिया तुम ने भुआ को उठा कर कहा क्यूँ नहीं ? नहीं तो घर आकर माँ बाबा को क्यूँ नहीं बताया !? वे तो समझते तुम्हारी बात !नहीं तो तुम मुझे बताती न! ... तुमने मुझ से बात क्यूँ नहीं की प्रिया?!\
"क्या बताती ? मुझे उस एक घटना से इतनी घृणा होने लगी थी की किसी तरह उसे भुलाना चाहती थी! और कहीं उसी चक्कर में मैं खुद को भुलाने लगी! माँ बाबा को लगा उम्र का झोल है... समय के साथ सब ठीक हो जाएगा! घंटो अपने को कमरे में बंद रखती थी! और स्मिता तुम्हारे सामने तो मुझे बिलकुल नहीं आना था! मुझे पता था ... तुम्हारे सामने तो मैं खुद को रोक ही नहीं पाऊँगी! और मेरे रोने का कारण कोई पूछे उस से पहले मैंने तुम से भी खुद को अलग कर लिया ! मैं बहुत छोटी थी स्मिता ... बहुत छोटी ! ... "
सुबकते हुए प्रिया ने अपनी झुकी गर्दन को और झुका लिया था ! स्मिता के मन में गुस्सा और घिन्नता का भाव भर गया !
" पर तुम क्यूँ शर्म से झुकी हो प्रिया ! अब तक उस बोझ को अपने ऊपर लेकर घूम रही हो! ? क्यूँ ? तुम्हारी क्या गलती है !? "
ये कहते कहते स्मिता चुप हो गई! क्या वो खुद प्रिया की जगह होती तो आवाज़ उठा पाती! ? शायद वो भी वही करती जो प्रिय ने किया! बारह साल की उम्र इतनी ज्यादह भी नहीं होती! सब समझते हुए भी कुछ समझ नहीं आता! गुस्सा तो उसे प्रिया की भुआ और माँ बाबा पर आ रहा था ! अपनी बेटी के अन्दर हुए बदलावों को समझ ही क्यूँ न पाए ! ? क्यूँ उसे अकेला हो जाने दिया! ? उफ़ !
स्मिता ने प्रिया के आंसू पोंछे!
"मुझे इस बात की ख़ुशी के प्रिया की तुम ने अपने दिल का गुबार आज निकाल दिया! अब हम दोनों मिल कर इस दुःख का हल ढूंढेंगे ! "
स्मिता की नज़र फिर से घडी पर गई! समय हो रहा था स्वीटी को लेने जाने का ! अजीब सा डर उसे अपनी बेटी के लिए लगने लगा! सब बच्चे चले गए वो अकेली रह गई तो! बाहर चोकीदार तो है ही... चोकीदार? क्या भरोसा! ?
प्रिया को फिर मिलने का वादा कर स्मिता फटाफट अपनी बेटी के पास पहुंचना चाहती थी! मगर उसे पता था की डर किसी बुरी चीज़ का हल नहीं हो सकता है! खुद को और अपनी बेटी को जागरूग करना बहुत आवश्यक है! और वो ऐसा ज़रूर करेगी! ...


Tuesday, August 9, 2011

एक छवि!




"बस माँ ! अब मुझे जाना है", अपनी छोटी सी गठरी को उठाते हुए चन्ना बोली!
"ऐसे कहाँ जाएगी लाडो? रुआंसा होती माँ ने पूछा!" इस निर्दय समाज ने तुझ से सवाल पूछे तो? अकेले कैसे रहेगी...?" धीमी होती वाणी माँ की स्पष्ट थी! मुंह में साडी का पल्लू दबा कर कुछ बोल रहीं थीं!
दोनों भाई और चुटकी अन्दर के कमरे में किवाड़ के पीछे छुप सब सुन रहे थे! अपितु उनके समझ के परे था ...सब कुछ !
और बाबा ... एक कोने में अपना सर पकडे बेठे थे !
"नहीं माँ कोई कुछ न कहेगा! न पूछेगा ! समय कहाँ है किसी के पास ! बस अपना मार्ग मुझ को मिल गया है ! इस निर्धनता के जीवन से कठिन तो कोई भी जीवन न होगा माँ ! "
"मुझे माफ़ करना बेटी ! में तेरे लिए कुछ भी न कर पाई ! "
और बाबा के पास जा माँ ने उनको झकझोरा " आप रोको इसे! कुछ तो कहो! हमेशा की तरह कहो की सब कुछ ठीक हो जाएगा ! " पर बाबा न उठे ! लज्जान्वित नयन जल धारा बरसा रहे थे ! कैसे रोक लें ! क्या उपाए है! क्रोध में ही तो कहा था ! इसका ब्याह रचाऊं या अपने परिवार को पालूं ! दरिद्रता का उपाए नहीं जब तो इसके जीवन का कैसे होगा! अपना मार्ग स्वयं चुन ले तो यही उचित है!
माँ मुर्छित सी हो वहीँ बैठ गई!
चन्ना अब नहीं रुकना चाहती थी! न किसी को सांत्वना ही दे पाई! उसका मन टीस से न भर प्रफुल्लित था ! स्वतंत्रता का अभिमान भी था उस में ! और अपना मार्ग खोज लेने का दृढ निश्चय ! बस नेत्र एक छवि को बार बार धुन्ध्लाकर उस के सामने ला खड़ा करते थे! जीवंत क्यूँ नहीं होती ये छवि ...बस यह सोच नेत्र अश्रु पूरित हो उठते!
माँ का ह्रदय कैसे मान जाए! " तू दरिद्रता से भाग रही है न? अपने कर्तव्यों से भी...! मत जा लाडो मुझे तेरी आवश्यकता है ! "
"नहीं माँ! ऐसा न कहो! दरिद्रता तो अपने दैहिक जीवन की यातना है! और तुम तो जानती हो न मेरा लक्ष्य! ? माँ मुझे वो छवि खोजनी है ,उसे जीवंत करना है सफल करना है! माँ ! मेरे ब्याह में खर्च करने वाली थी जो उसे मेरे भाई बहिनों की पढाई में लगाना! तुम से प्रार्थना है!
"जिस छवि के पीछे तू भाग रही है उस का कोई पता ठिकाना नहीं है चन्ना ! "
"माँ, मुझे तो गुरु के मार्ग पर चल कर पता मिल जाएगा ! मगर तुम और बाबा मिल कर जीवन संभाल लेना! और देखना मेरे अन्य भाई बहिनों को उच्च शिक्षा मिले! सुन रही हो न माँ? बाबा ये बात समझ गए है ! तुम भी मुझे मत रोको! मेरे एक के चले जाने से अगर निर्धनता दूर होती है तो होने दो न माँ !"
चन्ना अपनी गठरी पकडे बाहर निकलने लगी ! जैसे ही दरवाज़े तक पहुंची बाबा उसके सामने आ खड़े हुए ! और एक तमाचा चन्ना के मुंह पर जड़ दिया! " अरे तू इतनी अहंकारी है कैसे उस छवि को खोज सकती है जिसे इश्वर कहते हैं? मैंने सिर्फ अपना दुःख बांटा तुझ से और तू , तुने तो मुझे बेटी का हत्यारा ही बना दिया! हाँ हम निर्धन है ! मगर तू मेरा अभिमान रही है! तेरी माँ से भी इतनी उम्मीद न थी जितनी तुझ से !तू मेरा हर कठिन समय में साथ देगी! पर जा! तू अभी चली जा! ," उसे धक्का देते हुए बाबा ने घर के बाहर खड़ा कर दिया! और किवाड़ बंद कर दिए!
चन्ना को बाबा का हर शब्द समझ मैं आ रहा था! वो वहीँ खड़ी रह गई! गठरी भी उसकी वहीँ हाथों से छूट गई!एक छवि जिसे वह धुंधली समझ रही थी सामने उभरने लगी !"बाबा" , उसके मुंह से फूट पड़ा," और पलट कर किवाड़ पीटने लगी! " बाबा ,मझे माफ़ कर दो! मुझे माफ़ कर दो बाबा!"....... ...

Tuesday, May 17, 2011

पीड़ पराई ....

पीड़ पराई कैसे जानू......

आज सुबह से ही मन शुब्ध है !
आज मेरी काम वाली रोते रोते मेरे पास आई! यूँ तो रोज़ सुनती हूँ किस्से उसकी दरिद्रता के! वरन ,आज तो उसके नेत्र ही विस्मय जल बरसा रहे थे !
"क्या हुआ क्यूँ रोती हो,इश्वर को यूँ कोसती हो!"
"अरे भाभी मैं नहीं कहती तो क्या,ह्रदय मेरा दुःख से है भरा हुआ!मकान मालिक ने घर से निकाल दिया,बच्चा बचपन से बीमार रहा...पति की कमाई का भरोसा नहीं
फिर भी कभी खुदा को कोसा नहीं!स्कूल में बच्चे का हो दाखिला कैसे जब नहीं मेरे पास थोड़े भी पैसे !"
बस यूँही एक घंटा निकल गया,हृदय मोम था मेरा पिघल गया!
उसके बच्चे की फीस थमाई,जाओ कराओ उसे पढाई!मन मेरा प्रसन्न था मैंने जानी पीड़ पराई....!फिर शाम को जब माँ आई और मैंने उनको ये बात बताई .... वो गर्व से भर आई!
मेरी बेटी है ,मुझे गर्व है, पीड़ित की सेवा ही धर्मं है...
कल मैंने उसके बच्चे की थी चिकित्सा कराई, आज तुम भी उसके कितने काम आई!हम दोनों ने जानी पीड़ पराई!
हमने सोचा क्यूँ न उसके घर हो आएं! बच्चे से कभी मिले नहीं, ज़रा उसको भी मिल आएं !इधर उधर से पूछ पाछ कर उसकी बस्ती में थे पहुंचे ! उसके घर पर ताला देख सोचा ज़रा किसी से पूछें !
"अच्छा वो,हाँ वो यहीं रहती है,काम कई घरों मैं करती है, और रात मैं ही लौटती है! "
तो बच्चे को कहाँ छोडती है?
"बच्चा ? पर उसका तो कोई बच्चा नहीं! बस पति रहता है यंही ! वो भी मगर देर रात ही लौटता है, और तो कोई भी यहाँ नहीं रहता है!"
हम माँ बेटी उलटे पाँव लौटे....
मन पर भारी बोझ रहा था एक दूजे से भी क्या कहते...!
रस्ते भर न जाने कितने मांगने वालों ने हाथ फैलाए
और मैंने सबको कितने गुस्से से था दिया भगाए
तभी एक नन्हा सा हाथ मुझ तक जाने कैसे पहुंचा....
"माई थोड़े पैसे दे दो मैं भी तो कुछ खा लूँगा !"
पैसे तो उसको दिए नहीं पर उसको एक दूकान पर ले आई,
लो लेलो तुमको जो लेना है चाकलेट बिस्कुट या मिठाई....
हम माँ बेटी अब फिर प्रसन्न थे....
हम अब भी जानेंगे पीड़ पराई ......!!!!