Tuesday, September 1, 2009

कल की रात

कल की रात कितनी अधूरी ,अकेली थी। निर्मल वर्मा का एक उपन्यास हाथ में लिए बैठी थी मगर पढने का मन न बन पा रहा था । पंखे की हवा से खिड़की का परदा नाच रहा था। बाहर अँधेरा था स्ट्रीट लाइट से जो कुछ नज़र आ रहा था , धुंधला धुंधला ,उसे समझने को मन आतुर न था । बिजली चमकने की कर्कश आवाज़ आ जाती तो लगता मानो मुझे डराने के लिए ही बादलों ने मेरे घर के ऊपर जमघट किया है।
खिड़की से नज़र हटी तो हाथों में दबी हुई किताब पर गई। अनायास ही आँखें उस पन्ने को ढूँढने लगीं जिस पर मैंने पढ़ना छोड़ दिया था। बहुत मुश्किल से वो पन्ना पा सकी। कुर्सी पर ही पालथी मार कर बैठ गई। फिर जैसे ही पढने को हुई की बिजली गुल। कुछ क्षण के लिए सब शुन्य हो चला था। इतना खालीपन पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। मन मष्तिष्क भाव हीन और सपाट हो जाए थे। गुस्सा , दया , खुशी कुछ भी तो न था। सबकुछ नीरस व अचेत। ऐसा जान पड़ता था मनो किसी ने सोचने समझने के शक्ति ही छीन ली हो। बादलों की गर्जना ने कुछ पल बाद मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
बाहर छज्जे पर बारिश की बूँदें टप-टपा-टप पड़ने लगीं। कुछ देर बस उस संगीत को सुनती रही। पर इस मौसम मैं बाहर न जाना बेमानी सा लगा। मैंने कुर्सी से उठकर मेज़ का अंदाजा लगता हुए किताब उसपर सरका दी। अंधेरे मेंफिर रास्ता ढूँढने लगी। पलंग ओर बाकी चीज़ों से बचकर बाहर आई तो ढंडक ने पूरे शरीर को सिकोड़ कर रख दिया। बूंदा बंदी अब बौछार में बदल चुकी थी। अब कोई लय बाकी न रहा था फिर भी संगीत था । मैं इस संगीत का भरपूर आनंद उठाना चाहती थी। वहीं बरामदे में कुर्सी खींचकर टिक गई। यूँ तो हवा का ज़ोर नहीं था मगर कभी कभी हवा जब उठने की कोशिश में अंगडाई लेती तो साथ में इधर उधर बारिश की बूँदें बिखेर देती। तेज़ बारिश की जब हलकी बूँदें मेरे चेहरे पर पड़तीं तो मनके भाव फुदकने लगते । एक स्फूर्ति सी भर उठने लगती थी। जैसे रेगिस्तान को पानी नसीब हो उठा हो। ऐसे ही मन विचलित हो उठता ।
हवा फिर थम गई, पर माथे पर जो बूँदें अभी टिकी थीं वे धीरे धीरे पलकों से छन कर गालों पर ,फिर सररर से जांघों पर टिके हाथों पर ,टप से गिर पड़ती । मूंदी हुई आंखों से मेरा मन नए पुराने कई ख्वाब संजोने लगा था ।
मुझे ख़ुद ही आश्चर्य हो रहा था कि यह वाही निराशावादी मैं हूँ। मैं इस पल बहुत खुश थी। बरमादे मैं ही लगे पलंग पर लेट गई। कब आँख लगी पता ही नही चला । सुबह छत पर चढ़ती बेल पर बैठी चिडिया कि ची-ची से जब आँख खुली तो हैरानी हुई। आसमान साफ़ था । बादल के छोटे मोटे टुकडे इधर उधर बिखरे हुए थे। मन बार बार पूछ रहा था...."कल कि रात कैसी थी...?"।