Tuesday, March 2, 2021

नब्ज़

 सभी लोग गाड़ियों से उतरे तो आग बरसाता सूरज सबकी आँखों को चुंधिया गया। किसी ने गर्मी को उलाहना दिया किसी ने इस यात्रा का कार्यक्रम बनाने वाले को। 

नैना ने उतरते ही दुर्ग की ऊँचाई का अनुमान लगाया।  पत्थर ही पत्थर। नक़्काशियां जिनमें कृत्रिम रंग भरे हैं। उसी की मुस्कान की तरह। मुखौटे पर मुखौटा। 

उदासी कैसी खाई है ना कि न उभर पाते हैं न ज़मीन पर पैर टिका पाते हैं। अधरझूल में मन हर क्षण। 

मुश्किल रास्ता है। जीप नुमा गाड़ियाँ ही दुर्ग तक पहुँचा सकती हैं। चलाने वाले तजुरबेकार चालक। सब तस्वीर लेने में उलझे हैं नैना कहाँ उलझी है पता नहीं। राजा रानी की कहानियों में या तलवारों की नोक पर चढ़े अस्मिताओं के युद्ध में ?

गाड़ियों की प्रतीक्षा लम्बी हो गई है। सूरज ने भी अपनी पहाड़ी की ओट ले ली है। कहीं आकाश में दूर एक तारा टिमटिमा गया है। घंटियों के बजने की आवाज़ें शहर के किसी उजाड़ मंदिर से आ रही हों शायद। कुछ चमगादड़ें मेहमानों के रवैये का जायज़ा ले रही। 

गाड़ियाँ दरवाज़े पर है। नैना का शरीर भारी। जाने कितनी बार टूट चुकी हड्डियों का बोझ लेकर चढ़ तो गई गाड़ी में मगर उसका मन न लौट आने वाली यात्रा पर जाने को आतुर था। 

जीवन के प्रपंचों से घबरा गई है वो। दर्द का भारी सलीब उठाए फिरती है बस दर्द समझ आए तो दवा हो वरना क्या कीजिए भला। पहुँच गए हैं चोटी पर। सुंदर हवादार कमरे। गाइड के पास बड़ी सी टॉर्च बस रोशनी का एक वही स्रोत। रास्ता दिखाता आगे बढ़ रहा है। 

यहाँ रानियों को सती होने की जगह है। वो कुंड जहाँ पानी लबालब भरा रहता था। कहते हैं बिन ब्याहि सती होने वाली स्त्रियों की आत्माएँ आज भी भटकती है यहाँ। कुंड की सीढ़ियों पर कबूतर ही कबूतर। एक तरफ़ से पूरा शहर रोशनी में नहाया हुआ दिखाई द रहा था। औ दूसरी तरफ़ शांत अंधेरे में डूबा पत्थरों का आलीशान दुर्ग। 

रानी का शीशमहल और ऊपर है। सभी चढ़ाई चढ़ने लगे। अमर ने नैना का हाथ पकड़ लिया और चढ़ने लगा। अचानक नैना ने हाथ खींच लिया। अमर के क़दम ठिठक गए। 

चलो नैना, अब तो ज़रा सी है!  

बस मैं थक गई। मैं यहीं बैठ जाती हूँ। मुझसे नहीं होगा। दिल बैठा जा रहा था नैना का। ऊँचाई पर खड़ी होती है तो गहराई खींचती है नीचे। बस एक क़दम और। 

नहीं। मैं तुझे अकेले यहाँ नहीं छोड़ सकता। चल उठ चल। अमर ने नैना के हाथ जकड़ लिए। 

दोनों चल दिए। कमरों के बाद कमरे। सीढ़ियाँ अंधेरी छतों को जाती हुईं। यहाँ रानियाँ सजती सँवरती थीं। यहाँ गाना बजाना हेता था। यहाँ से दुर्ग का मंदिर दिखता है। संध्या आरती के समय अपने राजा की आरती उतारती हैं रानियाँ। छोटे छटे काँच के टुकड़ों में नज़र बंद है नैना की परछाईं। वह घूरना चाहती है। कौन है ये। घृणा सी क्यों हो रही इससे?  अपने में उलझी नैना कमरे से बाहर आ गई। चारों तरफ़ अंधेर घुप्प कमरे। किसी एक में भी जाकर बैठ जाए तो कोई ढूँढ भी न पाए। क़दम बढ़ने लगे। सोच और माँसपेशियों के बीच क्या होता है वो नदारद था। सही ग़लत की पहचान शायद। क़दम बस कुछ दूर बढ़े ही थे कि एक आवाज़ ने रोक लिया। 

नैना। नैना? साथ में रह यार। यहाँ साँप बिच्छू भी हैं बहुत। 

नैना का दम भर आया। ये आदमी मुझे बाँध कर रखना चाहता है। मैं रानी नहीं। आरती नहीं उतार सकती इसकी। 

खीझ से भरी नैना कमरे में लौट आई। बस एक आँसू रह गया आँख के कोने में। 

क्या सोच रही हूँ। सोचती चली जा रही हूँ। 

अमर ने फिर हाथ पकड़ लिया। इस बार थोड़ा और कसके। कोई अनजान डर तो होगा उसे भी। 

पर मेरे लिए प्रेम क्यूँ? उनके किसी रिश्ते में खरी नहीं उतरती मैं। फिर भी इतनी परवाह? 

कुछ अनदेखी आवाज़ें गहराने लगती हैं। कहते हैं दुर्ग के सबसे ऊपरी हिस्से में घोड़ों की पदचाप सुनाई देती है। वहाँ कोई भी जाता है तो अकसर लौट के नहीं आ पाता। दुर्ग बेहद शांत है। मुझे सुनना है इसे। 

गाइड ने टॉर्च आगे की। यह बहुत प्राचीन मंदिर है शिव जी का। 

मैं नहीं जाऊँगी। 

क्यूँ ?

मेरा कोई वास्ता नहीं ईश्वर से। 

ये क्या? हर बात पर विद्रोह? आख़िर क्यूँ?

हाँ मैं विद्रोही हूँ। मशाल लेकर निकल पड़ूँगी। सब जला कर राख कर दूँगी जो मुझे जीने की सीख देगा। मंदिर भगवान तुम प्रेम सब जला दूंगी। 

नैना का मन अशांत होंठ चुप। 

नैना चल ना। अकेले क्या करेगी यार? 

मेरे पैर अब सच में दुख रहे हैं अमर। 

अच्छा चल यहीं बैठ जा। ध्यान रखना। 

सबके अंदर जाते ही नैना खड़ी हो गई। दोनों तरफ़ फैले हुए अंधेरे रास्ते। किसी भी ओर मुड़ सकती है। 

बहुत शांत है सा जगह। लम्बे चौड़े गाइड न नैना पर टॉर्च की रोशनी डाली। नैना फिर बैठ गई। मैं यहीं रहता हूँ। ये हवा ऐसे ही चलती रहती है सुबह शाम। मैं अपने जाप में लीन रहता हूँ। 

शांति, मोक्ष, जाप उफ़ !! मृत्यु क्यूँ नहीं कहता कोई?  

कितने जन मरे हैं अब तक इतने ऊपर से गिर कर?

कोई नहीं सा। पूरे दुर्ग की रखवाली को हम पाँच लोग हैं। मजाल है कोई हादसा हो ऐसा।

भवें फैल गई नैना कीं मन सिकुड़ गया। 

सब लौट आए थे। 

सपना अपने स्मार्ट फ़ोन पर आकाश दिखाने लगी। कौन सा तारा क्या कौन सा ग्रह कहां। अजीब धुन है।  नैना आह वाह में पूरा जीवंत दिखने कि कोशिश कर रही थी। 

गाड़ियाँ लौट आईं थी। उतरने का समय हो चला है। अमर ने फिर  नैना का हाथ पकड़ कर चढ़ा दिया उसे गाड़ी में। ख़त्म होती है कहानी। लौट आते हैं धरातल पर। छुपा के रखने वाले क्षण हैं ये। मृत्यु की सरल चाह मन में लिए चेहरे पर मुस्कान सजाए निकल पड़ी है नैना फिर से रिश्तेदारियाँ निभाने।

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